मन

मन के खेल भी अजब हैं पल में यहां पल भर में वहां।

मन के सहारे जो चला वो मन का दास बन गया क्या दिन क्या रात मन ना हो कभी शांत अथक चलते रहने वाला यदि संसार में कुछ है तो वह मन है।
मन अथक चलता है यह जान कुछ ज्ञानियों ने इसको रोकने का प्रयास किया। पर मन के वेग के सामने किसी की क्या मजाल अच्छे से अच्छा तपस्वी भी मन से हार कर चूर हो जाता है।
मन को अपने मुताबिक चलाने से अच्छा है कि मन के सापेक्ष चला जाय। समझदारी इसी में है तेज़ वेग से बहती धारा को मोड़ने से बेहतर है कि धारा के सापेक्ष चला जाय। परंतु मन के सापेक्ष चलने से मेरा अभिप्राय यह कतई नही है कि मन को मनमानी करने दिया जाय। अपितु मन में आने वाले विचारो पर बुद्धि के अंकुश का प्रयोग करते हुए। जीवन में उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते रहना ही भले मनुष्य का जीवन उद्देश्य होना चाहिए।
मन पर बुद्धि का अंकुश कुछ लोगों को यह कार्य दुष्कर प्रतीत होगा पर क्या यह असंभव है बिल्कुल नही यह बिल्कुल असंभव नही है।
वैसे तो ज्ञानी जन बोल गए हैं कि मन को साधना बहुत ही दुष्कर कार्य हैं मन एक बेलगाम घोड़े की तरह हैं जो उसके सवार को अपने ऊपर टिकने ही नही देता है।
फिर भी मन पर अंकुश लगाया जा सकता है इसके लिए दो चीज़ें काम में आती हैं विरक्ति और द्रनसंकल्प । विरक्ति आसक्ति का विलोम हैं मतलब जब जब मन किसी माया की ओर दौड़े तो विरक्ति के माध्यम से उस आकर्षण बल को कम करें । फिर द्रनसंकल्प का सहारा लेकर मन को अगली बार ऐसा करने से रोके । इस प्रकार का अभ्यास बार बार करने से मन पर आप विजय पा लेंगे और आपका मन आपके बस में आ जायेगा। लोग मन के चंचल होने की शिकायत तो बहुत करते हैं परंतु द्रनसंकल्प के आभाव में चाहते हुए भी मन को बस में नही कर पाते हैं।
एक बार जब मन आपके बस में आ जाता है तब यह एक आज्ञाकारी सेवक की तरह आपके सारे आदेशों का पालन करता है । आप स्वामी समान जो जो कार्य मन को सौपेंगे यह मन उनको पूरा करके देगा। ऐसी स्थिति में ही जीवन के सुख रूपी अमृत का आनंद मिलता है। या यूं कहें कि जिस इंसान का मन उसके बस में हैउसका जीवन आनंद मय है । दैहिक और दैविक दुख उसकी अंतरात्मा को छू भी नही पाएंगे। और इस तरह मन का स्वामी बन मनुष्य अपनी अंतरात्मा तक पहुंचता है। यहां यह कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि मन ही अंतरात्मा तक पहुंचने का द्वार हैं । मन को बस में किये बिना आत्मा को महसूस करना असंभव है।
आत्मा आनंदमयी होता है। जो आत्मा के मिलन को जानता है वह आनन्द का रसपान कर रहा है । और जो मन पर विजय प्राप्त नही कर पाया मन उसको अंतहीन भटकाव में फंसा देता है। फिर मनुष्य जन्मजन्मांतर योनि दर योनि भटकता ही रहता है। और आनंद से दूर रहता है। यदा कदा उसको आंनद की प्राप्ति हो भी जाय परंतु यह आनंद स्थायी नही होता।
आनंद मयि और सुखमय जीवन जिसकी सभी कामना करते हैं । उसका मार्ग या कहें सुखमयी जीवन का राज हमारे भीतर ही है। यदि देर है तो  हमारा आलस उसका कारण है। हम अपने मन पर  अंकुश कर ही नही पाते । और अपने भीतर झांक ही नही पाते। असीम आनंद का जो स्रोत्र हमारे भीतर है उसके द्वार से अनभिज्ञ हम दर दर भटकते रहते हैं और सुख की कामना करते रहते हैं जो कभी आता नही । और किसी बाह्य स्त्रोत्र से आ भिजाय तो वह टिकता नही।


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