Inspirational story

गोकुल के पास ही किसी गाँव में एक महिला थी जिसका नाम था आनंदीबाई। देखने में तो वह इतनी कुरूप थी कि देखकर लोग डर जायें। गोकुल में उसका विवाह हो गया, विवाह से पूर्व उसके पति ने उसे नहीं देखा था। विवाह के पश्चात् उसकी कुरूपता को देखकर उसका पति उसे पत्नी के रूप में न रख सका एवं उसे छोड़कर उसने दूसरा विवाह रचा लिया। आनंदी ने अपनी कुरूपता के कारण हुए अपमान को पचा लिया एवं निश्चय किया कि 'अब तो मैं गोकुल को ही अपनी ससुराल बनाऊँगी।


वह गोकुल में एक छोटे से कमरे में रहने लगी। घर में ही मंदिर बनाकर आनंदीबाई श्रीकृष्ण की भक्ति में मस्त रहने लगी। आनंदीबाई सुबह-शाम घर में विराजमान श्रीकृष्ण की मूर्ति के साथ बातें करती, उनसे रूठ जाती, फिर उन्हें मनाती, और दिन में साधु सन्तों की सेवा एवं सत्संग-श्रवण करती। इस प्रकार कृष्ण भक्ति एवं साधुसन्तों की सेवा में उसके दिन बीतने लगे।
एक दिन की बात है गोकुल में गोपेश्वरनाथ नामक जगह पर श्रीकृष्ण-लीला का आयोजन निश्चित किया गया था। उसके लिए अलग-अलग पात्रों का चयन होने लगा, पात्रों के चयन के समय आनंदीबाई भी वहाँ विद्यमान थी। अंत में कुब्जा के पात्र की बात चली। उस वक्त आनंदी का पति अपनी दूसरी पत्नी एवं बच्चों के साथ वहीं उपस्थित था, अत: आनंदीबाई की खिल्ली उड़ाते हुए उसने आयोजकों के आगे प्रस्ताव रखा "सामने यह जो महिला खड़ी है वह कुब्जा की भूमिका अच्छी तरह से अदा कर सकती है, अतः उसे ही कहो न, यह पात्र तो इसी पर जँचेगा, यह तो साक्षात कुञ्जा ही है।"
आयोजकों ने आनंदीबाई की ओर देखा, उसका कुरूप चेहरा उन्हें भी कुब्जा की भूमिका के लिए पसंद आ गया। उन्होंने आनंदीबाई को कुब्जा का पात्र अदा करने के लिए प्रार्थना की। श्रीकृष्णलीला में खुद को भाग लेने का मौका मिलेगा, इस सूचना मात्र से आनंदीबाई भाव विभोर हो उठी। उसने खूब प्रेम से भूमिका अदा करने की स्वीकृति दे दी। श्रीकृष्ण का पात्र एक आठ वर्षीय बालक के जिम्मे आया था।
आनंदीबाई तो घर आकर श्रीकृष्ण की मूर्ति के आगे विह्वलता से निहारने लगी, एवं मन-ही-मन विचारने लगी कि 'मेरा कन्हैया आयेगा, मेरे पैर पर पैर रखेगा, मेरी ठोड़ी पकड़कर मुझे ऊपर देखने को कहेगा। वह तो बस, नाटक में दृश्यों की कल्पना में ही खोने लगी।
आखिरकार श्रीकृष्णलीला रंगमंच पर अभिनीत करने का समय आ गया। लीला देखने के लिए बहुत से लोग एकत्रित हुए। श्रीकृष्ण के मथुरागमन का प्रसंग चल रहा था, नगर के राजमार्ग से श्रीकृष्ण गुजर रहे हैं, रास्ते में उन्हे कुब्जा मिली। आठ वर्षीय बालक जो श्रीकृष्ण का पात्र अदा कर रहा था उसने कुब्जा बनी हुई आनंदी के पैर पर पैर रखा और उसकी ठोड़ी पकड़कर उसे ऊँचा किया। किंतु यह कैसा चमत्कार..। कुरूप कुब्जा एकदम सामान्य नारी के स्वरूप में आ गयी। वहाँ उपस्थित सभी दर्शकों ने इस प्रसंग को अपनी आँखों से देखा। आनंदीबाई की कुरूपता का पता सभी को था, अब उसकी कुरूपता बिल्कुल गायब हो चुकी थी। यह देखकर सभी दाँतो तले ऊँगली दबाने लगे। आनंदीबाई तो भाव विभोर होकर अपने कृष्ण में ही खोयी हुई थी।
उसकी कुरूपता नष्ट हो गयी यह जानकर कई लोग कुतुहल वश उसे देखने के लिए आये। फिर तो आनंदीबाई अपने घर में बनाये गये मंदिर में विराजमान श्रीकृष्ण में ही खोयी रहतीं। यदि कोई कुछ भी पूछता तो एक ही जवाब मिलता "मेरे कन्हैया की लीला कन्हैया ही जाने"।
आनंदीबाई ने अपने पति को धन्यवाद देने में भी कोई कसर बाकी न रखी। यदि उसकी कुरूपता के कारण उसके पति ने उसे छोड़ न दिया होता तो श्रीकृष्ण में उसकी इतनी भक्ति कैसे जागती ? श्रीकृष्णलीला में कुब्जा के पात्र के चयन के लिए उसका नाम भी तो उसके पति ने ही दिया था, इ tuसका भी वह बड़ा आभार मानती थी।
प्रतिकूल परिस्थितियों एवं संयोगों में शिकायत करने की जगह प्रत्येक परिस्थिति को भगवान की ही देन मानकर धन्यवाद देने से प्रतिकूल परिस्थिति भी उन्नतिकारक हो जाती है।
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इसीलिए तो कहते हैं भक्ति में बड़ी शक्ति होती है जब आप अपने आपको समर्पित कर देते हैं किसी ऐसी शक्ति के प्रति जहां से आपको विस्जवास है कि मेरा सब प्रकार से भला ही होगा तब आपका अवचेयाँ मन निश्चित होकर आपके लिए आपके इष्ट जैसबनाबना प्रारम्भ कर देता है। आप अपने इष्ट के जिन गुणों की प्रसंशा करते हैं आपके और आपके इष्ट के के बीच गुणों का जो अंतर है उसको पाटना प्रारंभ कर दिया है और आप अपने इष्ट के समान गुणों वाले बनते चले जाते हैं या यूं कहिये की आप उसके और पास आते चले जाते हैं । भक्ति भी दो प्रकार की होती हैं एक में लोग साकार स्वरूप की उपासना करते हैं तो दूसरे प्रकार को भक्ति में निराकार की उपासना की जाती है।
आप चाहे जिस प्रकार की भक्ति करते हैं  । परंतु आपका समर्पण भाव अत्यंत महत्वपूर्ण होता है यदि आपमे समर्पण भाव नही है तब चाहे आप कितना भी माथा पीटो कितने ही पूरा अर्चना करो कितना की व्रत या कथा पाठ करो सब व्यर्थ हैं उसका फल आपको न आज मिलेगा न भविष्य में ही कभी मिल सकता है। इसीलिए भक्ति का मूल तत्व आत्मसमर्पण को कहा गया है। ज्यो ज्यो हुम् आपने आपको अपने इष्ट के पीती समर्पित करते जाएंगे त्यों त्यों हमारे मन के विकार भी नष्ट होते चले जायेंगे ।
आजकल बहुत से लोगो को यह शिकायत रहती है कि हमको समय ही नही मिलता भक्ति के लिए दिन भर काम में बिजी रहते हैं । महोदय मैं आपसे बस इतना ही कहना चाहूंगा कि कर्म भी पूजा है यदि आपका कर्म जन कल्याणकारी है तो आप समर्पित भाव से पूरे मन से मन में कोई भी विकार ले बिना यदि अपने कर्म को ही करते जाएंगे तब भी आप वो सब पा सकते हैं जो भगवान की पूजा अर्चना में तल्लीन बैठा तपस्वी पा सकता है। में यहां तपस्वी शब्द का प्रयोग इसीलिए कर रहा हूँ  क्योंकि 24 घंटा जो मन में किसी अन्य विचार को आने ही न दें सिवाय भक्ति भाव के तो ऐसे भक्त तपस्वी कहता ज्यादा उत्तम प्रतीत होता है


🌹 "जय जय श्री राधे"🌹

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