Arastu 's political philosophy

अरस्तु का राजनीति दर्शन, क्या राजनीति का उद्भव अरस्तु से हुआ है?

एकराष्ट्र या साम्राज्यवादी सोच का उद्भव पूरी दुनिया में लगभग एक साथ हुआ था। जहाँ एक ओर भारत में  इसका प्रवर्त्तक महान ज्ञानी चाणक्य था। अगर हम बात करे अरस्तु की तो वो एक यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे, यूनान में अरस्तु ने सिकंदर की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं का समर्थन करते हुए उसे एशिया पूर्व के छोटे–छोटे देशों को अपने अधीन करने की सलाह दी थी। हम सभी जानते हैं की महाभारत मूलतः धार्मिक ग्रंथ है, महाभारत की  रचना शताब्दियों के अंतराल में एकाधिक लेखकों द्वारा की गई है। अगर यहाँ पर दुसरे केवल लेखक होने की शर्त होती तो एक ही धारा के तीन लेखकों के अनेक उदाहरण दुनिया–भर में आपको मिल जाएंगे. यहां पर बात ज्ञान की विलक्षणता और इंसानियत के प्रति  अधिक निष्ठा तथा एक–दूसरे से असहमति जताते हुए उसकी ज्ञान–परंपरा को विस्तृत तथा सतत परिमार्जित करने की है।


अरस्तु को आखिर कौन नही जनता होगा शायद इनका नाम बच्चे भी भलीभांति जानते होंगे। सभी को पता है कि अरस्तु एक यूनानी दार्शनिक थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था। अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान इतित्यादी कई विषयों पर रचना की। प्लेटो, सुकरात और अरस्तु पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे। उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र पर पहली व्यापक रचना की, जिसमें नीति, तर्क, विज्ञान, राजनीति और आध्यात्म का मेलजोल था। 


अरस्तू का राजनीति दर्शन

अरस्तू राजनीति के विज्ञान का पूर्ण विकास का प्रयास किया। एक विज्ञान के रूप में राजनीति वह बारीकी से नैतिकता से संबंधित है। अरस्तु को हम इस बात का भी श्रेय देंगे की उन्होंने राजनीति को फुटकर विचारो से ऊपर उठाकर एक स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता दिलाने पर जोर दिया। ऐसा नही हैं की राजनीति की नीव अरस्तु या प्लेटो के द्वारा पड़ी, राजनीति के अध्ययन की शुरुआत बहुत पहले ही हो चुकी थी। सबसे प्राचीन यूनान में होमर, लायक्राग्स, सोलन, प्रोटेगोरस, एंडीफोन, पाइथागोरस, जेनोफीन जैसे अनेक नाम हैं, जिन्होंने राजनीति को एक सभ्य परिभाष में प्रस्तुत किया था।
वह दार्शनिक क्या है ? प्रखर विद्वान परिवर्तनों का मूक–निष्पंद द्रष्टा बनकर नहीं रह सकता उसको दार्शनिक कहते हैं जिसमे विचारों का दुनिया में एक अलग महत्त्व हो।
अरस्तू  विचारों के परिवर्तन की आधारशिला मानता था। उसका मानना था कि मनुष्य श्रेष्ठ या महान का चयन तब कर सकता है, जब उसे श्रेष्ठत्व और महानता का ज्ञान हो। कौन सी ऐसी खूबियां हो किसी को श्रेष्ठत्व या महान प्रदान करती हैं।
अरस्तु ने मजबूत केंद्र के समर्थन में तर्क देते हुए राज्य की सुरक्षा और मजबूती हेतु अनेक सुझाव भी देता है, किन्तु ‘अर्थशास्त्र’ और ‘पॉलिटिक्स’ की विचारधारा में खास अंतर है. यह अंतर प्राचीन भारतीय और पश्चिम के राजनीतिक दर्शन का भी है। उनमें अरस्तु की विचारधारा आधुनिकताबोध से संपन्न और मानव–मूल्यों के करीब है। ‘पॉलिटिक्स’ के केंद्र में भी मनुष्य और राज्य है। दोनों का लक्ष्य नैतिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति है।

अरस्तु के अनुसार राजनीतिक–सामाजिक आदर्शों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है नागरिक और राज्य दोनों अपनी–अपनी मर्यादा में रहें। सामान्य नैतिकता का अनुपालन करते हुए एक–दूसरे के हितों की रक्षा करें। इस तरह मनुष्य एवं राज्य दोनों एक–दूसरे के लिए साध्य भी साधन भी. ‘अर्थशास्त्र’ में राज्य अपेक्षाकृत शक्तिशाली संस्था है. उसमें राज्य–हित के आगे मनुष्य की उपयोगिता महज संसाधन जितनी है।


एक राज्य का महत्त्व तब है जब उसके साथ पूरे समाज का हित जुड़ा हो, अगर एक राजा अपने हितों के लिए नागरिक हितों की बलि चढ़ाता है तो उसे निषिद्ध बताया गया है। समानता का आशय यह नहीं है कि व्यक्ति की पसंदों का ध्यान न रखा जाए. न्याय इसमें है कि प्रत्येक नागरिक को विकास के समान अवसर प्राप्त हों। इसके लिए अवसरों की समानता तथा किसी कारणवश विकास में पिछड़ चुके हैं नागरिकों को विशेष प्रोत्साहन देकर मुख्यधारा में लाने की कोशिश करते रहनाㅡन्याय और समाजीकरण दोनों की प्रथम कसौटी है।

अरस्तु की कामना एक ऐसे राज्य से थी,  जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अच्छाइयों के साथ जीने की आजादी हो। और वह अंतःस्फूर्त्त प्रेरणा के साथ लक्ष्य–प्राप्ति हेतु संकल्परत हो. यह तभी संभव है जब व्यक्ति को कानून और समाज की मर्यादा में, वह सब कुछ करने की स्वतंत्रता हो जिसे वह अपने लिए उपयुक्त मानता है। इसके लिए आवश्यक है कि राज्य अपेक्षित रूप में उदार हो. निरंकुश, अल्पतंत्रात्मक राज्यों में जनसाधारण से उसके चयन का अधिकार छीन लिया जाता है।

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