बनज के दोहे हिंदी में | हिंदी दिवस विशेष

बनज कुमार 'बनज' के दोहे

 बहुत सरल परन्तु गूढ़ अर्थ वाले होते हैं । बनज कुमार बनज अपने दोहों के माध्यम से जीवन का दर्शन समझाते तो कभी प्रेम की प्रगाढ़ता को दर्शाते हैं । जीवन अविरल अविनाशी अनंत हैं । हम सब इसमे आकर अपने लिए एक निश्चित समय तक जीते हैं आनंदित होते हैं। परंतु कहीं न कहीं इस जीवन की चकाचौंध हमे हमारी वास्तविकता से भटक देती हैं। बनज कुमार बनज के दोहे सुनकर आप जीवन दर्शन को सही सही समझ सकेंगे । और अपनी वास्तिवकता से रूबरू हो सकेंगे। 


 अपने आपके भी पीछे खडा हूं मैं।

जिंदगी कितने धीरे चला हूँ मैं।।


वक़्त का तकाजा है उठ खड़े हो जाओ।

कब तक रेंगते रहोगे किनारे किनारे।।


आलाहड़ता की खिड़कियां मत करना तू बन्द

वरना फूलो में नही पनपेगा मकरंद।


सूरज कुछ करता नही बस छूटा हैं गाल

यही सोचकर से हो गया मुँह संध्या का लाल


जाने कब करना पड़े खाली मुझे मकान
मैं समेटकर इसीलिए रखता हूँ सामान



हाथ खिलाडी कर रहे हैं जिसका उपयोग
मोहरे उस शतरंज के हैं हम सारे लोग.


धूप नही बस छाव हैं जिनकी रिश्तेदार

उनपर छतरी तानकर रहती है सरकार


तिजोरियों की कम नही पड़ जाय मुस्कान
लगातार  सरकार का इसी तरफ है ध्यान

किस किस की पूरी करे यहाँ जुलाहा आस
हर चरखे को चाहिए रसती  हुई कपास.


चमकी दमकी दामिनी बस थोड़ी सी देर

फिर बांहो में हो गयी वो बादल के ढेर


कलियों फूलो पल्लवों से छुड़वाकर हाथ।

सुबह सुबह फिर ले गयी धूप ओस को साथ।।


नचवायेगा कब तलक मुझको वो कुम्हार
चाक कहे अब हो चुके बर्तन सब तैयार


रखे पेड़ पर धूप ने ज्यों ही अपने पांव।

उत्तर गयी थी गोद से डर के मारे छाव।।

                                                                                            (बनज कुमार बनज के दोहे)


प्रकृति के माध्यम से बनज कुमार बनज जी ने कितनी सुंदर बात कही है कि रखे पेड़ पर धूप ने ज्यों की अपने पॉव उतर गयी थी गोद से डर के मारे छाव। 

ऐसे ही जीवन में जब कभी कोई बाहुबली यदि गांव के मुख्य प्रधान के यहां आने जाने लगता है। तो सज्जन लोगो का उस प्रधान के यहां जाना स्वतः ही समाप्त हो जाता है। 

बुराई और अच्छाई एक साथ एक जगह नही टिक सकते बनज कुमार बनज जी ने अपने दोहों से जीवन के इसी सत्य को बताने का प्रयास किया है।



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