Ramdhari Singh Dinkar Poems
बाधा विघ्नों को चूम चूम
सह धूप घाम पानी पत्थर
पांडव आय कुछ और निखर
सौभाग्य न सब दिन सोता है
देखें आगे क्या होता है
मैत्री की राह बताने को
सबको सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आए
पांडव का संदेशा लाए
दो न्याय अगर तो आधा दो
इसमें भी यदि कोई बाधा हो
तो दे दो केवल पांच ग्राम
रखो धरती तुम अपनी तमाम
हम वहीं खुशी से खाएंगे
परिजन पर असि न उठायेंगे
पर दुर्योधन वह भी दे न सका
आशीष समाज का ले ना सका
उलटे हरि को बांधने चला
जो था असाध्य साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है
हरि ने भीषण हुंकार किया
अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान् कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे
हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे
यह देख गगन मुझमे लय है
यह देख पवन मुझमें लय हैं
मुझमें लय हैं झंकार सकल
मुझमें लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझमें
संहार झूलता है मुझमें
उद्यांचल मेरा दीप्त भान
भूमण्डल वक्ष स्थल विशाल
भुज परिधि बंद को घेरे हैं
मैं नाख मेरु पग मेरे मेरे हैं
दिखते हैं जो नक्षत्र निगर
सब हैं मेरे मुख के अंदर
दृग हों तो दृश्य अकांड देख
मुझमें सारा ब्रम्माण्ड देख
चर अचर जीव जर नक्षर
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर
सतकोटि सूर्य सतकोटि चंद्र
सतकोटि सरित सत सिंधु मंद
सतकोटि विष्णु ब्रम्हा महेश
सतकोटि जन जनपति धनेश
सतकोटि रूद्र सतकोटि काल
सतकोटि दंड दर लोकपाल
जंजीर बढाकर साध इन्हें
हाँ हाँ दुर्योधन बांध इन्हे
भूलोक अतल पातळ देख
गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन
यह देख महाभारत का रण
मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान कहाँ उसमें तू है
मुट्ठी में तीनो काल देख
पद के नीचे पाताल देख
अम्बर में कुंतल जाल देख
मेरा स्वरुप विकराल देख
सब जन्म मुझि से पाते हैं
फिर लौट मुझि में आते हैं
जिव्हा से करती ज्वाल सृजन
साँसों से पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर
हंसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन
छा जाता चारों ओरे मरण
बाँधने मुझे तू आया है
जंजीर बड़ी क्या लाया है
यदि मुझे बांधना चाहे मन
तो पहले बाँध अनंत गगन
शून्य को साध नहीं सकता है
वो मुझे बाँध क्या सकता है
हित वचन नहीं तूने माना
मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले मैं भी अब जाता हूँ
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ
याचना नहीं अब रण होगा
जीवन जय या की मरण होगा
टकरांएगे नक्षत्र निखर
बरसेगी भू पर बज्र प्रखर
फन शेषनाग का डोलेगा
विकराल काल मुँह खोलेगा
दुर्योधन रण ऐसा होगा
फिर कभी नहीं जैसा होगा
भाई पर भाई टूटेंगे
व यश शृगाल लूटेंगे
विषबाण बूँद से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
आखिर तू भुशाई होगा
हिंसा का वरदाई होगा
थी सभा सन्न सब लोग डरे
चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न अघाते थे
धृतराष्ट्र विधुर सुख पाते थे
कर जोड़ खड़े प्रमुदित निर्भय
दोनों पुकारते थे जय जय
प्रदीप जी IAS द्वारा रश्मिरथी का कविता पाठ