दिनकर जी कविता
नरता कहते है जिसे,सत्तव क्या वह केवल लड़ने में है?
पौरुष क्या केवल उठा खड्ग मारने और मरने में है?
तब उस गुण को क्या कहें मनुज जिससे मृत्यु से डरता है
लेकिन,तक भी मारता नहीं,वह स्वंय विश्व-हित मरता है।
है वन्दनीय नर कौन?विजय-हित जो करता है प्राण हरण
या सबकी जान बचाने को देता है जो अपना जीवन ?
चुनता आया जय कमल आज तक विजयी सदा कृपाणाे
से,पर आह निकलती ही आयी हर बार मनुज के प्राणों सें
आकुल अन्तर की आह मनुज की इस चिन्ता से भरी हुई,
इस तरह रहेगी मानवता कब तक मनुष्यसे डरी हुई ?
पाशविक वेग की लहर लहू में कब तक धूम मचायेगी ?
कब तक मनुष्यता पशुता के आग यों झुकती जायेगी ?
यह जहर ने छोड़ेगा उभार? अंगार ने क्या बुझ पायेंगे ?
हम इसी तरह क्या हाय सदा पशु के पशु ही रहे जायेंगे ?
किसका सिंगार?किसकी सेवा?नर का ही जब कल्याण
नहीं,किसके विकास की कथा?जनों के ही रक्षित जब
प्राण नहीं?इस विस्मय का क्या समाधान ?
रह-रह कर यह क्या होता है?जो है अग्रणी वही सबसे। आगे बढ़ धीरज खोता है।फिर उसकी क्रोधाकुल पुकार
सबको बेचैन बनाती है,नीचे कर क्षीण मनुजता को ऊपर
पशुत्व को लाती है हाँ,नर के मन का सुधाकुण्ड लघु है,
अब भी कुछ रीता है,वय अधिक आज तक व्यालों के
पालन-पोषण में वीता है।ये व्याल नहीं चाहते,
मनुज भीतर का सुधाकुण्ड खोले,जब जहर सभी के मुख
में हो तब वह मीठी बोली बोले।थोड़ी सी भी यह सुधा मनुज का मन शीतल कर सकती है,बाहर की अगर नहीं,
पीड़ा भीतर की तो हर सकती है।लेकिन धीरता किसे ?
अपने सच्चे स्वरूप का ध्यान करें,जब जहर वायु में उड़ता हो पीयूष-विन्दू का पान करे।पाण्डव यदि केवल
पाँच ग्राम लेकर सुख से रहे सकते थे,तो विश्व शान्ति के
लिए दुःख कुछ और न क्या सह सकते थे सुन कुटिल बचन दुर्योधन का केशव ने क्यों यह कहा नहीं हम तो
आये थे शांति हेतु,पर तुम चाहो जो वही सही तुम भड़
काना चाहते अनल धरती का भाग जलाने को,नरता के
नव्य प्रसूनों को चुन चुन कर क्षार बनाने को।पर शांति-
सुन्दरी के सुहाग पर आग नहीं धरने दूँगा,जब तक जीवित हूँ तुम्हें बान्धवों से न युद्ध करने दूँगा।लो सुखी
रहो,सारे पाण्डव फिर एक बार वन जायेंगे।इस बार,
माँगने को अपना वे स्वतत्व न वापस आयेंगे।धरती की
शांति बचाने को आजीवन कष्ट सहेंगे वे नूतन प्रकाश
फैलाने को तप में मिल निरत रहेंगे वे।
दिनकरजी कविता
शत लक्ष मानवों के सम्मुख दस-पाँच जनों का सुख क्या है।यदि शांति विश्व की बचती हो,बन में बसने में दुख क्या
है? सच है की पाण्डूनन्दन वन में सम्राट् नहीं कहलायेंगे,
पर,काल ग्रन्थ में उससे भी वे कही श्रेष्ठ पद पायेंगे।
होकर कृतज्ञ आने वाला युग मस्तक उन्हें झुकायेगा ,
नवधर्म-विधायक की प्रशस्ति संसार युगों तक गायेगा।
सीखेगा जग, हम दलन युद्ध का कर सकते त्यागी होकर
मानव-समाज का नयन मनुज कर सकता वैरागी होकर।
पर नहीं विश्व का अहित नहीं होता क्या ऐसा कहने से ।
प्रतिकार अनय हो सकता है। क्या उसे मौन हो सहने से?
क्या वही धर्म है लौ जिसकी दो-एक मनों में जलती है।
या वह भी जो भावना सभी के भीतर छिपी मचलती है।
सबकी पीड़ा के साथ व्यथा अपने मन की जो जोड़ सके,
मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके
युगपुरुष वही सारे समाज का विहित धर्मगुरु होता है।
सबके मन का जो अन्धकार अपने प्रकाश से धोता है।
द्वापर की कथा बड़ी दारुण,लेकिन,कलि ने क्या दान किया,नर के वध की प्रकिया बढ़ी कुछ और उसे आसान
किया। पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्ग मुख था,वह आज निन्ध-सा
लगता है।वस, इसी मन्दता के विकास का भाव मनुज में
जगता है।
दिनकर जी कविता
धुँधली हुई दिशाएँ छाने लगा कुहासा ।
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा ।
कोई मुझे बता दे,क्या आज हो रहा है ।
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता, पुकार मेरी संदीप्ति को जिला दे ।
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे ।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार माँगता हूँ ।
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है ।
कोई नही बताता किश्ती किधर चली है?
मँझधार है,भँवर है या पास है किनारा ?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा ?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा ।
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा ।
तम वेधिनी किरण को संधान माँगता हूँ ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ ।
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है ।
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है ।
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है ।
है रो रही जवानी, अंधेर को रहा है ।
निर्वाक है हिमालय गंगा डरी हुई है ।
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है ।
पंचास्यनाद भीषण विकराल माँगता हूँ ।
जड़ता विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ ।
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है।
अरमान आरजू की लाशें निकल रही है।
भीगी खुली पलकों में रातें गुजारते है ।