हास्य व्यंग के रंग संपत सरल के संग

Sampat Saral Picture
स्त्रोत: फेसबुक


संपत सरल जी आधुनिक युग के हिंदी के महान व्यंगकार है लीजिये प्रस्तुत है उनकी हास्य व्यंग से भरपूर रचना

                       वे भी क्या दिन थे


वे भी क्या दिन थे जब घडी एकाध के पास थी और समय सबके पास
आज की तरह नही था की फेसबुक पर 5000 मित्र हैं और परिवार में बोलचाल नही है।
तब मोबाइल तो क्या लैंडलाइन भी नही होता था,
अतः झूठ सिर्फ आमने सामने मिलने पर ही बोला जाता था।

खानपान शुद्ध था और याददाश्त अच्छी थी
हर व्यक्ति को सात सात पीढियां याद रहती थी
अपनी भी और गाली गालोच होने पर दूसरे की भी।।

हमारी प्राथमिक शिक्षा तो ऐसी थी जिसमे शिक्षा प्राथमिक नही थी
हमारा 50 बच्चों 3 अध्यापको दो पेड़ो और एक कमरे का स्कूल हुआ करता था।
आज तो इतने ले बल पर लोग यूनिवर्सिटी चला रहे है।

पढाई लिखाई को लेकर कतई तनाव नही रहता था
क्योंकि हम विद्यार्थियो और अध्यापको के बीच एक समझौता था
की सप्ताह में तीन दिन वे स्कूल नही आएंगे और तीन दिन हम।

बोलचाल में मातृभाषा का इस्तेमाल होता था
हिंदी सिर्फ शहरों तक ही सीमित थी,
और अंग्रेजी तो केवल पीने के बाद ही बोली जाती थी।

कई प्रकार के खेलकूद थे अब तो बच्चे गेम के नाम पर
केवल वीडियो गेम खेलते हैं
बच्चे भी क्या करें खोखो कबड्डी कुश्ती तो संसद विधान सभाओ में चले गए
बाक़ी खेलो को क्रिकेट ने बॉउंड्री लाइन के बाहर कर रखा है।

हालांकि क्रिकेट तब भी खेल जाता था,
बैट का मालिक बैटिंग करता था और बाल का मालिक बोलिंग
फील्डर भी यही दो होते थे,
बैट टच न होने पर फेंकी हुई गेंद फेकने वाले को  ही लानी पड़ती थी
एक ओवर कुल कितनी गेंदों का होगा यह गेंद का मालिक तय करता था

बल्लेबाज पहले गेंद पीटता था और फिर मूड के अनुसार भागकर या चलकर रन बनाता था
तत्पश्चात गेंद लाता था
ऐसा भी होता रहता था  की बल्लेबाज की दिनभर गेंद लाने की इच्छा नही होती थी
और वह दिनभर रन ही बनाता रहता था।

लोग भूखे उठते थे पर भूखे सोते नही थे
मंहगाई बिलकुल नही थी ईमान के अलावा सबकुछ सस्ता था
सस्ताई का अंदाज़ा आप इसी से लगा लें की फिल्मो में
हेरोइनो को पैसा कम मिलता था फिर भी कपडे पूरे पहनती थीं।

उन दिनों रामलीलाएं मनोरंजन का प्रमुख साधन हुआ करती थी
जिनमे महिला पत्रो का रोल भी पुरुष ही करते थे
रामलीला बालो का गले मिलने व गले पड़ने का समय अगल अलग होता था
रामलीला मण्डली गांव की धर्मशाला में ठहरती थी

हम गाँव के बच्चे धर्मशाला में जाकर देखते थे की गतरात ही एक दूसरे के जानी दुश्मन रहे
बाली और सुग्रीव एक दूसरे के साथ ताशपत्ति खेल रहे हैं
शुर्पड़खा मंथरा के लिए चाय बना रहा है।
चटाई पर बैठा रावण रात को आये पैसो का हिसाब
मंदोदरी को दे रहा है।

तब लोग पैदल चलते थे व पदयात्राएं किया करते थे।
जो की पद प्राप्त करने के लिए नही होती थी
कुछेक के पास साइकिल हुआ करती थी
जो चार रोटियों में चालीस का एवरेज दिया करती थी
कारें मोटरसाइकिलें छोडो बसें तक गिनती की हुआ करती थी।
जहाज और हवाईजहाज तो हम किताबो में देखते थे और कापियों के बनाया करते थे।

याद आती हैं बे मीटर गेज़ की कोयले के ईंधन वाली वो गाड़ियां।
तय करना कठिन था की यात्री व गाड़ियों में लॉन किसको ठो रहा है।
उनकी स्पीड का तो यह हाल था की घंटे आधे घंटे का सफ़र होता था फिर भी लोग
तीन वक़्त का खाना बांधकर चलते थे।

ट्रेन में चढ़ने में जितना पसीना आता था उतरने में उससे अधिक आता था
यात्री काठ की सीटों पर काठ के उल्लू बने बैठे रहते थे
डिब्बों में ठपलि वालो का गण बजाना चलता रहता था
खड़े यात्री भजन पसंद करते थे और जिन्हें सीट मिल जाती थे वे ग़ज़ल

लोग फरमाइशें करते थे और ठपलि वाले गाते रहते थे
ठपलि वालो को पैसे देने का वक़्त आता था तब लोग खुद गाने लगते थे
चूंकि यात्री कप सामान की सुरक्षा खुद करनी होती थी
इसलिए खाली हाथ चढ़ते थे तो भी सामान लेकर उतरते थे।

चिट्ठी पत्री का दौर था एसएमएस और ईमेल वाले क्या जाने क्या जाने पत्रलेखन का स्वाद
पत्रो में व्याकरण अशुद्ध होते हुए भी आचरण शुद्ध होता था
मैंने तो स्वयं अपने पिताजी को चरणस्पर्श की जगह आशीर्वाद लिखा है

ख़त लिखता हूँ खून से स्याही न समझना
अर्थात ख़त को लाल स्याही से लिखकर अपने खून से लिखा
बताने का रिवाज तब भी था
परिणाम भी वैसा ही निकलता था
जिन्होंने वैसे प्रेम पत्र लिखकर कबूतर उड़ाये थे
आज बेचारे शादीशुदा हैं और उनके तोते उड़े हुए हैं।

शादी से याद आया तब शादियों में व्यर्थ का दिखावा या धूम धड़ाका नही होता था
बस दो चार बाराती नागिन की बजती धुन पर सपेरा डांस कर लेते थे
क्योंकि बीन बनाने के लिए रुमाल ही केवल दो चार के पास हुआ  करता था।।

वह टीवी नही रेडियो का युग था
व्यक्ति बंदूक भले ही बिना लाइसेंस के रख सकता था
किन्तु रेडियो के लिए लाइसेंस अनिवार्य था
याद आता है अमीन शायनी का बिनाका गीत माला
जसदेव सिंह की हिंदी कमेंट्री
कृष्णकुमार भार्गव देवकी नंदन पांडे और रामानंद प्रसाद के समाचार
गर्दन झुकाकर बीबीसी तो ऐसे सुनते थे जैसे आज बीबी से सुनते हैं।

सच है गन्ने का रस सूख जाए तो वह लाठी रह जाती है
तब हमारा जीवन कछुए की तरह था
आज हम खरगोश की तरह दौड़ रहे हैं
अर्थात भाग सब रहे है पर पहुँच कोई नही रहा।

                                                                                      -संपत सरल















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