मेरे कमरे में कोई आइना नही हैं क्योंकि......


मेरे कमरे में कोई आइना नही हैं क्योंकि,
अपने अक्स को देखने की मुझमे वो हिम्मत नहीं है
हलाकि अक्सर मुझे दिख जाया करता हैं, आइनों की दुनिया में
जिसका दरवाजा कभी खुलता हैं, काली कढाई के उबलते तेल में
मुसलसल दौड़ती हुई मेट्रो की खिडकियों में,
सड़क के गड्ढो में जमा बरसत के पानी में,
स्याह रात सी खामोश मेरे दफ्तर में खड़ी कार्बन फाइबर की दीवार में,
मगर जब कभी भी वो मुझे उस पार से देखते हैं, मैं सहम जाता हूँ
क्योंकि मुझे दिखाई देती हैं दो आंखे जो,
बचपन से लेकर आज तक बिलकुल भी नहीं बदली,
मगर बदल गया हैं उन आंखो के देखने का नजरिया,
पेशानी पर उभर आई हैं कुछ फ़िक्र मंद सी लकीरे,
सूज गये हैं ये फफोते और ताबत्सुम अब दिल में रह जाती हैं,
लबो पर अब नहीं आती!

मैं उससे पूछता हूँ कौन हो तुम वो मुझसे वहीं सवाल दोहराता हैं,
जवाब शायद हम दोनों के अन्दर हैं, मगर अब सुख गया फुर्सत का समन्दर हैं
आज कल सवाल सिर्फ सवाल रह जाते हैं,
ये सवाल मेरा सूरते हाल सुनते हैं, ये मुझसे पूछते हैं
क्यों गायब तुम्हारे आँखों की सरारत हैं? लहजे की वो हरारत हैं
क्यों मन मर्जी लगती है हिमाकत हैं, क्या इस पेशे की यहीं विरासत हैं,
कि बस आफत-आफत आफत है!

अब चैनो सकून का लम्बा इंतजार होता हैं, जो कभी मुफ्त था उसका अब व्यापर होता हैं,
मैं उससे नजरे चुरा लेता हूँ, ज्यादा देर देख नही पता हूँ,
जो रास्ता आसान हैं फिर वहीँ मुड जाता हूँ क्योंकि,
डर लगता हैं ये सोच के की वक्त न तो रोकता हैं, न ही लौटता हैं
रूकती हैं तो बस सांसे और कंक्रेट के इस जंगल में कैद ये सांसे
कहीं जाया तो नहीं हो रही हैं, क्या ये कहीं और खर्च होने के लिए बक्शी गयी हैं!
क्या मेरा मकसद कुछ और हैं? या फिर ये दौर ही गुलामी का दौर हैं
मेरे कमरे में कोई भी आइना नहीं हैं, लेकिन एक दिन मैं माजी का टिकट कटाके
कोशिशों के पहियों पर चलने वाली हौसलों की ट्रेन पर सवार हो जाऊंगा,
ताकि यादों के स्टेशन पे उतर के जंग लगी बेंच पर बैठे हुए अपने बचपन को,
उठालाऊ अपने साथ इस शहर में, और लगा दू अपने कमरे में एक आइना
 ताकि गायब हो जाये ये पेशानी की वो लकीरे, फिर कभी न सूजे ये फफूटे
लौट आये आँखों की वो शरारत,लहजे की वो हरारत और लबो म्पे आने को तरसती वो तबस्सुम...




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