ग़ज़ल -वसीम बरेलवी साहब

मैं आसमां पे बहुत देर रह नहीं सकता
मगर यह बात ज़मीं से तो कह नहीं सकता

किसी के चेहरे को कब तक निगाह में रक्खूं
सफ़र में एक ही मंज़र तो रह नहीं सकता

यह आज़माने की फुर्सत तुझे कभी मिल जाये
मैं आंखों -आंखों में क्या बात कह नहीं सकता

सहारा लेना ही पड़ता है मुझको दरिया का
मैं एक कतरा हूँ तनहा तो बह नहीं सकता

लगा के देख ले ,जो भी हिसाब आता हो
मुझे घटा के वह गिनती में रह नहीं सकता

यह चन्द लम्हों की बेइख्तियारियां* हैं ‘वसीम’
गुनाह से रिश्ता बहुत देर रह नहीं सकता

*बेइखितयारियां – काबू न होना
                                                                 - वसीम बरेलवी
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