किसान पर हिंदी कविता

एक कर्मनिष्ठ किसान के जन-जीवन पर आधारित
मेरी ये कविता।


            (1)
वह खड़ा मग में निरन्तर
कंठ में उत्साह के स्वर,
हाथ उसके है सधे से
श्वेद तत्व की धार झर-झर


कर्म उसके राष्ट्रहित,
भुजाओं में बल अपरिमित,
तोड़ पर्वत के शिखर को
कर दिया अन्न उपजित


उदराग्नि की व्याकुलता ने,
पत्थरों को काट डाला।
नहि गया मुँख में निवाला।


             (2)
बाजुओं के बल खड़ा है,
हाथ गैंती - फावड़ा है।
दहकती भूमि - रण में,
भूखे का पौरुख़ बड़ा है। 


सुख प्रफुलता रख किनारे
वज्र श्याम शरीर वारे।
तोड़ता कण-कण महि! वह,
किस सुखद जीवन सहारे?


मनु के सपूत उस मानव ने
पर्वत के पाँव उखाड़ डाला
नहि गया मुँख में निवाला।


             (3)
आह! देखो थम गया वो,
शांत और सहम गया वो।
मंद आँखों के स्वप्न में,
एक पल को रम गया वो।


फिर अचानक वह उठा,
थाम हाथ में फावड़ा।
याद आयी पेट की जब,
चल पड़ा मग पग बड़ा।


बाल-बच्चों की खुशियों में,
सारा जीवन बेच डाला।
नहि गया मुँख में निवाला।


             (4)
रवि किरण माथे पर पड़ती,
मानो पसीने से ठंढक बढ़ती।
आखों में किसकी चिन्ता?
जो नित प्रतिदिन अखरती।


शून्य सा  गुमसुम  है  मन,
शान्ति की अदभुत गर्जन।
मनोदशा की व्यथित कथा में,
कर रहा निर्वाह  जीवन।


अर्धांगिनी के माथ रंग से
जीवन में कालिख पोत डाला
नहि गया मुँख में निवाला।
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