बनज कुमार बनज के दोहे - philosophical poems/dohe in hindi



                                  -:बनज कुमार बनज के दोहे:-

philosophical Dohe in hindi


बरगद पनघट पे खड़ा लिखता है इतिहास। 
किस किस ने किस किस तरह यहाँ बुझाई प्यास।।.

जब सागर को जीत का था पूरा विश्वास।
तभी अचानक ले लिया नदिया ने संन्यास।।

दिन हो जाता शाम को  थक कर चकनाचूर।
कर लेता है रात की शर्ते सब मंजूर।।

तुमने तो बस कह दिया कल करना अब बात। 
रोकूंगा मै किस तरह आंसू सारी रात।।
पायल चुपके से कहे धीरे चल ओ पाँव।
जाग न जाय आज भी फिर यह सारा गाँव।।

दिन उसके संभले नही न समझी है रात।
छूटा जिसके हाथ से मेहँदी वाला हाथ।।

इक तितली का फूल से टूटा जब सम्बन्ध।
यहाँ वहां बिखरे मिले पंख और मकरंद।।

इतने भी दुर्बल नही हैं पानी के पाँव।
जिन्हें हटा कर उस जगह आग बसा ले गाँव।।

फूलो के संग रहे रहा मै माटी का ढेर।
मुझमे भी बस जायेगी खुशबू देर सवेर।।

बीच सफ़र से चल दिया ऐसे मेरा ख्वाव।
आधी पढ़कर छोड़ दे जैसे कोई किताब।।

ढूंढ रही छाव को बौराई सी धूप।
श्यामल होने से डरे उसका गोरा रूप।।

समझ लिया है वक़्त ने हमको एक सराय।
भागा भागा आय है भागा भागा जाय।।

दिन का आधा रास्ता तय करती है रात।
फिर भी दिन सुनता नही उसके मन की बात।।

तरह तरह के यात्री एक सफर में साथ ।
स्टेशन सबके अलग जो कुदरत के हाथ॥

तू भी है मेरी तरह यहाँ किरायेदार।
फिर क्यूँ मालिक की तरह केरता है व्यवहार॥

नदिया धीरे चल जरा जाना है उस पार।
बुलवाया है उसने आज पहली बार॥


हमने आँखें मूँद ली हुमे कहाँ है होश।
लकड़ी क्यूँ संग जल रही इसका क्या है दोष॥

छोड़ो यह पैगम्बरी बन जाओ इंसान।
खुद के भीतर झांक लो खाली पड़ा मकान॥

एक अकेला कर रहा सबके सारे काम।
सब मिल कर ऐसा करो वो कारले आराम॥

फूल कली तितली भ्रमर नाचें मिलकर साथ
जब बसंत ने रख दिया उनके सिर पर हाथ॥


आँख क्रोध से भर गयी तड़क रहे हैं काांच।
दूध उफन के बह रहा धीमी कर ले आंच॥ 





         

                                          -:बनज के गीत 1:-

                                  philosophical poems in hindi


जिस शहर की धूप उदास लगे और छाया तक में क्रन्दन हो।
उस शहर के सूरज का फिर कैसे गीतों में अभिनंदन हो।।
हर मोड़ पर तख्ती टंगी हुई है जाने कितने  प्यासों की
गिनती बढ़ती है  रोजाना अब फटी पुरानी सांसो की
जहां चंदन की जगह बबूलों का मंदिर तक में वंदन हो
उस शहर के सूरज का ..........

आवाजें आती रहती हैं फूलों की काय छिलने की
कलियों को लेनी पड़ती है हर रोज इजाजत खिलने की
एक फूल फूल से डरे जहाँ और शूलों में गठ्वंधन हो
उस शहर के सूरज का ............

डसने की क्षमता रोजाना बिष पीने वाले बढ़ा रहे
जीवन के खातिर बेचारे सब लोग चढावा चढ़ा रहे
मंथन हो सागर का लेकिन असुरों के हाथ प्रबंधन हो
उस शहर के सूरज का ............

जब भी देखो तो मिलते हैं फुटपाथों के चेहरे ठहरे
जो बौने हैं वो गूंगे हैं जो लम्बे हैं वो हैं बहरे
रावण रुपी शैतानों का जहाँ नामकरण रघुनन्दन हो
उस शहर के सूरज का कैसे फिर गीतों में अभिनंदन हो




बनज के गीत 2

philosophical poems in hindi


चला चला मैं चला रातभर चंदा को काँधे पर धरकर
दिन में सूरज की ऊँगली को पकडे रहा उजाला बनकर


मैंने पनघट से घाट पीये नदी किनारे पलछिन जिए
अपनी अंतस की माचिस कितने बार जलाय दिए
एक बस्ती से दूजी बस्ती निकल गया मै और निखरकर
चला चला मै चला रातभर


बंजारों से मिलती जुलती हैं मेरी साड़ी गतिविधियाँ
मस्ती और फकीरी यारों मेरी सिद्धी मेरी निधियां
मेरे गीतों में जादू है और दोहों में जंतर मंतर
चला चला मै चला रातभर


रातों का श्रंगार किया तो दिन कोभी गहने पहनाये
एक मौसम से ख़त लेकर के दूजे के घर तक पहुंचाय
मैंने सबकी बात सुनी है चलते चलते और ठहरकर
चला चला मै चला रातभर


किसकी गठरी कौन लुटेरा अपना केवल रेन बसेरा
जहाँ भेज देता है मौला वहीँ लगा लेता हूँ डेरा
आना जाना चलता रहता कभी बिगड़कर कभी संवरकर
चला चला मै चला रातभर

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